आश्वासनों की मेड़ पर
अब मुझे ठीक-से याद भी नहीं कि
तुम्हारी थकी-हारी विश्राम-वंचित रातों को
सहेजने के लिए
कितनी ही बार मैंने सूरज को
आमन्त्रण-धर्मी देहरी से
लौटा दिया
और अक्सर तपते या दमकते दिनों को
आश्वासनों की मेड़ पर रख
अपनी अधखिली कामनाओं को
औसत दिनचर्या के सिलबट्टे पर पीसते-पीसते
भूल ही गई उस महकते उपवन को
जिसपर अभी पाला नहीं पड़ा था
और जिसे सींचते रहना
दिनचर्या का सहज हिस्सा होना था !
दूर तक आकाश में
बिना डैनों के उड़ती रंगीन पतंगों और
गुब्बारों को देख समझना था
कि न उड़ने पर
उन्हें कोई अकुलाहट नहीं होती !
क्षितिज तक पहुँचती असहज अपनी दीठ को
मापती हूँ पाँव तले धरती
और गति के उछाल को !
पाँव-भर मिट्टी में
जबकि अनन्त यात्राओं के
हठीले आह्वान
बाँह थामे अग्रसर हैं
अजानी दिशाओं की ओर !
सुनो, अनिवार्य है बताना कि
वे दिपदिपाते सपने
प्रबल चुम्बकीय हैं !
कैलाश नीहारिका