Wednesday 10 October 2018

दरख्तों के परिन्दे

    2122  2122  1212  212

हम दरख्तों के परिन्दे यहॉं  बुलाए हुए
पत्तियों की खुशनुमा साँस के लुभाए हुए

आँधियों का ज़िक्र करना अभी मुनासिब नहीं
 अब चहकने दो हमें आसमां उठाए हुए

हम घटाओं का पता पूछने निकल तो गए
आग का गोला चला साथ खार खाए हुए

आस इतनी तो रहे लौटकर कभी फिर मिलें
सौंपने होंगे कई खास पल कमाए हुए

रोज़ ही ताज़ा करेंगे उड़ान की बतकही
काश फिर बरसे घटा दिन हुए नहाए हुए

वे महकते-से शज़र वापसी मुक़र्रर कहें
लौट आना  नीड़ की चाहतें बचाए हुए

                                      कैलाश नीहारिका

Thursday 19 July 2018

अधरची-सी बहर में


   221  22  212

बेज़ार शामो सहर में
क्या दिल लगाते शहर में

वह उम्र-भर की दिल्लगी
जैसे बुझी  हो ज़हर में

पुरनम सुरीला दर्द था
इक अधरची-सी बहर में

फिर अधबुझी-सी प्यास थी
उस मछलियों के शहर में

झरते नहीं वे दर्द अब
रच-बस गए जो लहर में

वह ज़िन्दगी भर का जुनूं
अब रंग लाया दहर में

                        कैलाश नीहारिका



Monday 16 July 2018

मुमकिन नहीं

लिख ही डालूँ इक बहर में ज़िन्दगी मुमकिन नहीं
कैसे गाऊं एक सुर में तल्खियाँ मुमकिन नहीं

करके देखो तुम उजालों से कभी  कुछ गुफ़्तगू
रच दो बस अल्फ़ाज़ से उजली सहर मुमकिन नहीं

जब भी फसलें झेलती हैं रात पाले का कहर
कोई सूरज धूप ओढ़ा दे तभी  मुमकिन नहीं

टुकड़ा टुकड़ा काट के फैंका गया कुछ इस तरह
सारे सच को जोड़के वह शक्ल दूँ मुमकिन नहीं

मैं  तुम्हारे जश्न में आई  भरी मुट्ठी लिए
जाते-जाते पोटली-भर दर्द लूँ मुमकिन नहीं

तुम-सा तन्हा कौन है ये सोचती हूँ आह भर
ऐसी तन्हाई जिसे कुछ सौंपना मुमकिन  नहीं

         222  2212  2212  2212


                            कैलाश नीहारिका 

Thursday 12 July 2018

मृग मरीचिका



उस सूखती नदी के रेतीले तट पर
 नहीं डूबी मैं
रेत में भला कोई डूबता है
फिर भी  डूब ही तो गई
उस घनी चमकती रेत से उपजी
मृग मरीचिका में !

                         कैलाश नीहारिका 

Monday 9 July 2018

राग बोती ग़ज़ल

  2122 2222 12

सुर्ख़ आँखों से जब रोती ग़ज़ल
राग सब ऋतुओं में बोती ग़ज़ल

जब पसीना बहते-बहते थमे
छाँव देती खुशबू होती ग़ज़ल

रीत जाते यूँ ही बादल घने
आह-भर खालीपन ढोती ग़ज़ल

सोख  लेती बहकी बेताबियाँ
अश्क़-भर हँसके जब रोती ग़ज़ल

रात ने  जाने क्या उससे कहा
रात-भर काजल-सा धोती ग़ज़ल

रोज़नामें में लिखते फब्तियाँ
यह न होती तो वह होती ग़ज़ल
                     
                                    कैलाश नीहारिका

Sunday 27 May 2018

दलबल जोड़ा होगा

 222  222  22

कैसे दलबल जोड़ा होगा
तीर अजब ही छोड़ा होगा
 
मार उसी के हिस्से आई
जिसने भंडा  फोड़ा होगा
 
साजिश दर साजिश के चलते
किस-किस ने मुँह मोड़ा होगा

कब सच अखबारों में छपता
क्या सच काठ-हथौड़ा होगा
 
आज भले वह हार गया हो
कल रस्ते का रोड़ा होगा
 
इस किस्से में पेंच कई हैं
क्या-क्या तोड़ा-जोड़ा होगा

ज़ालिम कब होगा घुटनों पर
 कब उस हाथ कटोरा होगा
 
                         कैलाश नीहारिका

Thursday 3 May 2018

बेहुनर हाथ

बेहुनर हाथ किसी काबिल बना दूँ तो चलूँ
आस की डोर  हथेली में थमा दूँ तो चलूँ

मोड़ दर मोड़ मिलेंगे राह भूले चेहरे 
एक मुस्कान निगाहों में बसा लूँ तो चलूँ                 

रात-भर नींद करेगी बेवफ़ा-सी बतकही 
जश्न  की साँझ अँधेरों से बचा लूँ तो चलूँ
                        
पाँव नाज़ुक उलझ गए कंकरीली  राह से 
अजनबी मोड़ गले तुमको लगा लूँ तो चलूँ 

डगर को छोड़ कहाँ जाऊँ भला तुम ही कहो
चाँद की चाह समन्दर को बतादूँ तो चलूँ

रोज़ क्या साथ रहेंगे फुरसतों के सिलसिले
धूल में जज़्ब  हुए लम्हे  उठा लूँ तो चलूँ

    2122  222  2122  212   
                     कैलाश नीहारिका

Friday 2 March 2018

खाये-पीये और अघाए

खाये-पीये और अघाये यार बहुत
गुप-चुप दिखते धार लगे औजार बहुत
 
लम्बी-चौड़ी घोर सियासी महफ़िल में
कैसे कह दूँ जीवन के दिन चार बहुत

चाराजोई ही कर लेते हाकिम से
हम जैसे जो मिल सकते खुद्दार बहुत

आँसू पी जाते बिन बोले चुपके-से 
यूँ हँसते दिखते रहते हुशियार बहुत

किस्सागोई तो अब मुश्किल बात नहीं
दायें-बायें रोज़ दिखें  किरदार बहुत

मौके के मुद्दों पर हम सब चुप रहते
मिलते-जुलते साजिश को तैयार बहुत
 
दिनभर खटते रहकर उसने क्या जोड़ा
माना खाते खोल रही सरकार बहुत

तिनका भी तोड़े न मुसाहिब पूरा दिन 
छुट्टी करने को मिलते इतवार बहुत





           2222   222  2222
                                         कैलाश नीहारिका

Sunday 7 January 2018

तत्पर हथेलियाँ


बात करते-करते
संग-सम्बन्धों के विमर्श पर  
अनमने-से मौन ओढ़ लेते हो
किसको ज्ञात नहीं कि 
बन्द मुट्ठियों में
आसक्तियों के कसे-सटे रेशे
सदा एक-से नहीं रहते ।

तत्पर हथेलियाँ
यूँ ही नहीं थाम लेतीं
आगे बढ़े हाथ को ।
मन की तहों में दबा रखे
अदिखे अबूझ रहस्य
ऐसे ही रेशमी फिसलन-से
औचक नहीं खुल जाते ।
दृष्टि स्वर स्पर्श में 
टेरती कशिश 
बेवजह नहीं होती।
 
जंगल में नाचने से पहले मोर
अकारण ही आकुल होकर 
नहीं जोहता
सहचर का अखुट्ट भरोसा ।

यात्रा कोई
बिना किसी पृष्ठभूमि के 
अधर से शुरू नहीं होती 
सोचो तो, ऐसा भी जटिल नहीं
पाँव और डगर के सम्बन्धों की टोह लेना।

                    कैलाश नीहारिका 




                             
      

Tuesday 2 January 2018

पीछे मुड़कर भी देखना



पायल, बिन्दी, कँगना से 
आगे निकल चुकी लड़की   
पीछे मुड़कर भी देखना
चीन्हना उस साम्राज्य को
जहाँ गृह-कारा में बंद कई ज़िन्दा अस्तित्व और
विवशता के रुदन में दब गए मनभावन गीत
अजगरी जकड़न की वेदना से त्रस्त हैं  !

पकड़ उंगली तुम्हारी   
कुछ दबे गीतों के सुर भी  
दूर तक साथ चल देंगे
जो अभी असमंजस में हैं
होंठों की देहरी के भीतर !

तुम देखना मुड़कर 
कि अवरुद्ध साँसों को कुछ साफ़ हवा मिल सके 
कि सुन्न पंखों में जागें स्पन्दन 
कि फैसलों के पीछे हों कई पुख़्ता कदम 
कि शोर की जगह संगीत ले !

दोहराऊँगी आह्वान कि 
बेगार मत ढोना     
किसी गन्तव्यहीन यात्रा की
बहुत-से पिंजरे हटाने हैं तुम्हें
जिनसे तुम मुक्त हो !
 
मैं मिलूँगी तुम्हें प्रतीक्षारत 
इसी मोड़ पर
हठी गान्धारी की आँखों पर से 
अनदिखी पट्टियाँ खोलते  
दुखती उँगलियों से !

                  कैलाश नीहारिका